एक चिड़िया थी अनजानी सी, जो घर पर मेरे रहती थी।
अक्सर मुझसे बतियाती थी, अक्सर मुझसे कुछ कहती थी।।
वो चिड़िया प्रेम पुजारिन थी, मुझ जालिम से तंग रहती थी।
अक्सर मुझ पर चिल्लाती थी, अक्सर वो लडती रहती थी।।
जब हम दोनो अनजाने थे, अक्सर हममे ठन जाती थी।
मैं उसका घर रोज जलाता था, वो फिर घर नया बनाती थी।।
लडते-लडते फिर मुझमें भी, थे प्रेम के अंकुर पनप उठे।
मैं दाना उसे खिलाता था, वो मुझको गीत सुनाती थी।।
एक रोज मगर फिर नियति की, घनघोर घटा घर घिर ही गयी।
वो नन्ही चिड़िया प्यारी सी, टकरा पँखे से गिर ही गयी।।
मैं बस लाचार, विमुख बैठा, था मौत का मंजर देख रहा।
एक प्रेम पुजारिन चली गयी, और मैं खुद को था कोस रहा।।
अब रह-रह कर वीराने में, वो याद मुझे आ जाती है।
हो मुर्ख, रहोगे मुर्ख सदा, यह श्राप मुझे दे जाती है।।
तुम मनु-पुत्र बस जिन्दा हो, जीना तुमने जाना ही नही।
बस दौड़ रहे अविरत, अविराम, कभी खुद को पहचाना ही नही।।
यह एक सत्य था शनि लिखा, और काव्य कंटीला बना दिया।
है प्रेम मनुज क्या जानेगा, अभिशाप पंक्षी ने सुना दिया।।
1 टिप्पणी:
Hello! sir, this is Varun Khatri i have gone through all of ur poems `n` it was really full of life. Keep it up !!!
Regards
Varun Khatri
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